Monday, June 3, 2013

दर्शनशास्त्र की वर्तमान शिक्षा में उपयोगिता -डॉ देशराज सिरसवाल

दर्शनशास्त्र  को 'मानविकी ' संकाए के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।  मानविकी बड़ा ही सुगम्य शब्द है , जिसकी परिभाषा एवम अर्थ-विस्तार की रेखाएं उतनी सुनिश्चित, सुनिर्धारित नहीं हैं, न ही इसके क्षेत्र की व्यापकता के विषय में सर्वत्र सहमती है।  एक सामान्य और प्रचलित परिभाषा के अनुसार, "मानविकी " के अंतर्गत वे विधाएं आती हैं,  जो " मानव के मानवीकरण" में सहयोग दें अर्थात जो उसके व्यक्तित्व का संस्कार -परिष्कार करें। कई विश्वविधालयों में तो इसे कला संकाय के अंतर्गत रखा जाता हैं, जबकि कुछ में इसे प्राच्य-विद्या संकाए के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है जिसमे संस्कृत, संगीत, प्राचीन इतिहास और ललित कलाएं भी सम्मिलित होती हैं। 
दर्शनशास्त्र का सामान्य अर्थ  ज्ञान के प्रति  प्रेम से  लिया जाता है। दर्शनशास्त्र के अंतर्गत वह सब आता है जो ज्ञान-रूप माना जाता है।  दर्शनशास्त्री  बहुत से विचारों जैसे सत्य, सुन्दरता, ज्ञान, न्याय , सद्गुण , मुल्य इत्यादि का अध्ययन करते हैं।  इसमें तर्क और समालोचना पर जोर दिया जाता है साथ ही  इसके अंतर्गत विचारकों और दर्शनशास्त्रियों के विचारों का पठन - पाठन होता है।   दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी निम्नलिखित व्यवसायों में अपनी सामर्थ्य को आजमा सकता है:
स्कुल, महाविधालय , विशवविधालय और संस्थानों में अध्यापन 
केंद्रीय और राज्यविशवविधालय में शोध के क्षेत्र 
योग एवं ध्यान 
दार्शनिक लेखक 
तार्किक विचार वाले व्यवसाय 
समाज सुधारक 
नैतिक परामर्शदाता 
कानून व्यवसाय 
जीवन कौशल सम्बन्धी शिक्षा  
दर्शनशास्त्र में व्यक्ति को आलोचनात्मक चिन्तन के साथ बेहतर और सफल जीवन के आदर्श सिखाये जाते हैं। जिसके द्वारा वह  अपने जीवन के साथ साथ  दूसरों के जीवन में भी सकारात्मक योगदान दे सकते हैं।  स्नातक स्तर पर दर्शनशास्त्र का अध्ययन लगभग सभी विषयों के साथ किया जा सकता है। आज के शिक्षा तन्त्र की खामियों से हम सभी जूझ रहे हैं, उसका एकमात्र कारण यह हैं की हम विद्यार्थियों को उस तरह की शिक्षा नही दे पा रहे हैं जिससे उनका सर्वांगीन  विकास हो सके।  जब तक चिन्तन, मनन और मूल्यों का अध्ययन शिक्षा का केंद्र नही बनेगा तब तक समाज में तथाकथित पढ़े लिखे लोग समाज निर्माण में सही योगदान नही दे सकते।
जो शिक्षा  व्यक्ति में केवल आर्थिकता के प्रति मोह पैदा करती है,  वह कभी भी समाज-निर्माण में योगदान नही दे सकती।  इसी के कारण समाज में पढ़े लिखे अपराधियों की संख्या बढ़  रही है।  पहले चोरी डकैती अशिक्षित  का काम माना जाता था, लेकिन आज उसके विपरीत पढ़े-लिखे लोग बड़ी बड़ी कुर्सियों पर  बैठे भ्रष्टाचार और समाज के विघटन में पूरा सहयोग दे रहे हैं।  सामाजिक और राष्ट्रीय मुल्य दावं पर लगे है  और भ्रष्ट  लोग  जनता का खून चूस रहे हैं।  अगर सच में ही हम शिक्षित हो गये हैं तो समाज में इतनी ज्यादा संख्या में अन्याय क्यों हो रहा है। इसका एकमात्र कारण व्यक्तिगत , सामाजिक और  राजनैतिक स्तर पर मूल्यहीनता ही है, जैसे आदर्श बच्चो को पढ़ायें जायेंगे वह ऐसे ही बनेंगे।
शिक्षा तंत्र में आये दिन जो बदलाव हो रहे हैं, सरकारी स्कूलों में तो उसका नकारात्मक ही असर दिखाई देता है। ज्यादातर गरीब परिवार के बच्चे वहां  शिक्षा ग्रहण कर  रहे है, जो भी बदलाव नजर आ रहे हैं सामान्यत वह गुणात्मक शिक्षा से उन्हें वंचित कर  रहे हैं। सिर्फ वाणिज्य और विज्ञान की शिक्षा पर जोर देने से और मानविकी और समाज-विज्ञानं के विषयों की अवहेलना करने से शिक्षा का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है। जितना पैसा इस क्षेत्र में लगाया जा रहा हैं उतनी गुणवता दृश्य नहीं है। उसके विपरीत  उच्च संस्थानों में सबसिडी पर दी जाने वाली वाणिज्य और विज्ञानं की शिक्षा का फायदा ज्यादातर  निजी कम्पनियों और विदेश के संस्थान उठा रहे हैं, क्योंकि जनता से एकत्रित किये गये करों से पढाये जाने वाले ये युवा भारतीय समाज के विकास में नगण्य भूमिका निभा रहे हैं। वे  या  तो निजी क्षेत्र की कम्पनियों में काम करते हैं या अंतर-राष्ट्रीयता का दामन ओढ  लेते हैं।
जब तक शिक्षा में स्वतंत्र-चिन्तन और मूल्यों पर जोर नही दिया जायेंगा तब तक अच्छे अध्यापक, लेखक, विचारक , राजनेता, कानून-विशेषज्ञ , उधमी और लोकसेवक नही बन सकते। बेशक भारत राजनितिक तौर पर आजाद हो गया है लेकिन वैचारिक तौर पर आज भी गुलाम है। आज की सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियाँ हमारी इसी गुलामी की उपज है। अगर हम सही ढंग से शिक्षित होंगे तभी हम सही प्रतिनिधि चुन पाएंगे और बेहतर नागरिक बन पाएंगे। भ्रष्ट चिन्तन के साये में जी कर भारत निर्माण नही होगा, उससे पहले सही चिंतन करना अति आवश्यक है।